॥ दोहा ॥
बंशी शोभित कर मधुर,नील जलद तन श्याम। अरुण अधर जनु बिम्बा फल,पिताम्बर शुभ साज॥
जय मनमोहन मदन छवि,कृष्णचन्द्र महाराज। करहु कृपा हे रवि तनय,राखहु जन की लाज॥
॥ चौपाई ॥
जय यदुनंदन जय जगवंदन।जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
जय यशुदा सुत नन्द दुलारे। जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
जय नटनागर, नाग नथइया। कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो। आओ दीनन कष्ट निवारो॥
वंशी मधुर अधर धरि टेरौ। होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो। आज लाज भारत की राखो॥
गोल कपोल, चिबुक अरुणारे। मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
राजित राजिव नयन विशाला। मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥
कुंडल श्रवण, पीत पट आछे। कटि किंकिणी काछनी काछे॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहे। छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
मस्तक तिलक, अलक घुँघराले। आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
करि पय पान, पूतनहि तार्यो। अका बका कागासुर मार्यो॥
मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला। भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥
सुरपति जब ब्रज चढ़्यो रिसाई। मूसर धार वारि वर्षाई॥
लगत लगत व्रज चहन बहायो। गोवर्धन नख धारि बचायो॥
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई। मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥
दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥ कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें। चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥
करि गोपिन संग रास विलासा। सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
केतिक महा असुर संहार्यो। कंसहि केस पकड़ि दै मार्यो॥
मातपिता की बन्दि छुड़ाई ।उग्रसेन कहँ राज दिलाई॥
महि से मृतक छहों सुत लायो। मातु देवकी शोक मिटायो॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी। लाये षट दश सहसकुमारी॥
दै भीमहिं तृण चीर सहारा। जरासिंधु राक्षस कहँ मारा॥
असुर बकासुर आदिक मार्यो। भक्तन के तब कष्ट निवार्यो॥
दीन सुदामा के दुःख टार्यो। तंदुल तीन मूंठ मुख डार्यो॥
प्रेम के साग विदुर घर माँगे।दर्योधन के मेवा त्यागे॥
लखी प्रेम की महिमा भारी।ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
भारत के पारथ रथ हाँके।लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥
निज गीता के ज्ञान सुनाए।भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥
मीरा थी ऐसी मतवाली।विष पी गई बजाकर ताली॥
राना भेजा साँप पिटारी।शालीग्राम बने बनवारी॥
निज माया तुम विधिहिं दिखायो।उर ते संशय सकल मिटायो॥
तब शत निन्दा करि तत्काला।जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
जबहिं द्रौपदी टेर लगाई।दीनानाथ लाज अब जाई॥
तुरतहि वसन बने नंदलाला।बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥
अस अनाथ के नाथ कन्हइया। डूबत भंवर बचावइ नइया॥
सुन्दरदास आ उर धारी।दया दृष्टि कीजै बनवारी॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो।क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै।बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥
॥दोहा॥
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि। अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥
॥ दोहा ॥
- बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
- बंशी शोभित कर मधुर – श्रीकृष्ण का हाथ में मधुर बंशी बहुत सुंदर लगता है।
- नील जलद तन श्याम – श्रीकृष्ण का शरीर नीले बादल की तरह श्याम वर्ण का है।
- अरुण अधर जनु बिम्बा फल, पिताम्बर शुभ साज॥
- अरुण अधर जनु बिम्बा फल – श्रीकृष्ण के होंठ बिम्बा फल (एक प्रकार का लाल फल) की तरह अरुण वर्ण के हैं।
- पिताम्बर शुभ साज – पीले रंग के वस्त्र (पिताम्बर) में श्रीकृष्ण बहुत ही शोभायमान और सुंदर लगते हैं।
- जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज।
- जय मनमोहन मदन छवि – जय हो उस मनमोहक और मोहक रूपवाले (मदन छवि) भगवान का। ‘मदन’ यहाँ पर प्रेम के देवता का नाम है, जिससे कहा जा रहा है कि भगवान श्रीकृष्ण की छवि उससे भी अधिक आकर्षक है।
- कृष्णचन्द्र महाराज – महान राजा, श्रीकृष्ण जिनका नाम ‘कृष्णचन्द्र’ (कृष्ण + चन्द्र) है, जिससे उनकी चंद्रमा की तरह चाँदनी वाली छवि को प्रकट किया जा रहा है।
- करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥
- करहु कृपा हे रवि तनय – हे सूर्य के पुत्र (यहाँ पर ‘रवि तनय’ श्रीकृष्ण को संदर्भित करता है, जैसे वह सूर्य के समान जगत में प्रकाशित हो रहे हैं), कृपा करो।
- राखहु जन की लाज – भक्तों की लाज (इज्जत) रक्षा करो
॥ चौपाई ॥
- जय यदुनंदन जय जगवंदन।
- जय यदुनंदन – “जय हो यदुवंश के नंदन को”, जहाँ ‘नंदन’ पुत्र का संदर्भ है और यह श्रीकृष्ण को संदर्भित करता है क्योंकि वह यदुवंश में जन्मे थे।
- जय जगवंदन – “जय हो जगत के वंदनीय को”, यहाँ ‘जगवंदन’ से मुराद है वह व्यक्ति जिसे सम्पूर्ण जगत वंदन करता है, अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण।
- जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
- जय वसुदेव देवकी नन्दन – “जय हो वसुदेव और देवकी के पुत्र को”, यह श्रीकृष्ण को संदर्भित करता है क्योंकि वह वसुदेव और देवकी के पुत्र थे।
- जय यशुदा सुत नन्द दुलारे।
- जय यशुदा सुत – “जय हो यशोदा के पुत्र को”, जहाँ श्रीकृष्ण का संदर्भ है जिसे यशोदा माँ ने पाल-पोस कर बड़ा किया।
- नन्द दुलारे – “नंदराय के प्रिय”, जहाँ ‘नंद’ श्रीकृष्ण के पालक पिता नंदराय को संदर्भित करता है और ‘दुलारे’ से उनके प्रति प्रेम को दर्शाया जा रहा है।
- जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
- जय प्रभु – “जय हो प्रभु को”
- भक्तन के दृग तारे – “भक्तों की आँखों का तारा”, जिससे मुराद है वह प्रभु जिसे उनके भक्त सबसे ज्यादा प्रिय और महत्वपूर्ण मानते हैं।
- जय नटनागर, नाग नथइया॥
- जय नटनागर – “जय हो उस नट (नर्तक) नगर (नगरी) के”, जिसे श्रीकृष्ण के रूप में जाना जाता है जो अपने लीलाओं के माध्यम से अकेला एक ‘नट’ था जिसने पूरी ‘नगर’ को मोहित किया।
- नाग नथइया – “नाग को नथने वाला”, जिसे श्रीकृष्ण के रूप में संदर्भित किया जाता है, जब वह बालक अवस्था में कालिया नाग को परास्त किया था।
- कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥
- कृष्ण कन्हइया – “कृष्ण, कन्हैया”, दोनों ही श्रीकृष्ण के नाम हैं।
- धेनु चरइया – “गायों का चराने वाला”, जो श्रीकृष्ण के बालक अवस्था के लीला के एक महत्वपूर्ण अंश को दर्शाता है जब वह गोपाल बनकर गायों को चराते थे।
- पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो।
- पुनि नख पर प्रभु – “फिर प्रभु ने अपने नख (नाखून) पर”, जहाँ ‘प्रभु’ श्रीकृष्ण को संदर्भित करता है।
- गिरिवर धारो – “पर्वत को धरा”, यह श्रीकृष्ण की गोवर्धन पर्वत उठाने की लीला को संदर्भित करता है।
- आओ दीनन कष्ट निवारो॥
- आओ दीनन – “आओ दुखियों के पास”
- कष्ट निवारो – “और उनके कष्ट हर लो”, जो श्रीकृष्ण के सर्वोत्तम और करुणामय प्रकृति को दर्शाता है।
- वंशी मधुर अधर धरि टेरौ।
- वंशी मधुर – “मधुर वंशी”, जिसे श्रीकृष्ण के साथ संजोए जाता है, जो वह अक्सर अपने होंठों पर बजाते थे।
- अधर धरि टेरौ – “होंठों पर धारण कर बजाओ”, यहां पर विशेष रूप से श्रीकृष्ण से प्रार्थना की जा रही है कि वह अपनी मधुर वंशी को अपने होंठों पर लेकर बजाएं।
- होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥
- होवे पूर्ण विनय – “हो, पूरी तरह से विनम्रता हो”,
- यह मेरौ – “यह मेरी (प्रार्थना/अनुरोध है)”, यहाँ प्रार्थनाकर्ता श्रीकृष्ण से अपनी पूरी तरह से विनम्रता की प्रार्थना कर रहा है।
- आओ हरि पुनि माखन चाखो।
- आओ हरि – “आइए भगवान्”,
- पुनि माखन चाखो – “फिर माखन चखो”, यहां भगवान श्रीकृष्ण की बालक अवस्था की लीला को संदर्भित किया जा रहा है, जब वह माखन चुरा कर खाते थे।
- आज लाज भारत की राखो॥
- आज लाज भारत की – “आज भारत की इज्जत”,
- राखो – “संजोएं”, यहाँ प्रार्थना की जा रही है कि श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति और मान्यताओं की इज्जत को संजोएं।
- गोल कपोल, चिबुक अरुणारे।
- गोल कपोल – “गोल माखोल गाल”, जो बच्चों और युवाओं के चेहरे में आमतौर पर दिखाई देते हैं।
- चिबुक अरुणारे – “लालिमा वाली ठुड्डी”, जहाँ ‘अरुण’ सूर्य के प्रथम किरणों का रंग होता है जो लाल होती है।
- मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
- मृदु मुस्कान – “मुलायम मुस्कान”, जो किसी के चेहरे पर मधुरता और आकर्षण लाती है।
- मोहिनी डारे – “मनमोहक दृष्टिकोण”, जहाँ ‘मोहिनी’ का अर्थ होता है मनमोहक या आकर्षक।
- राजित राजिव नयन विशाला।
- राजित राजिव नयन – “कमल के फूल की तरह चमकती हुई आँखें”, जहाँ ‘राजिव’ का अर्थ होता है कमल।
- विशाला – “बड़ी”, यह आँखों की बड़ी और खुली हुई विस्तारपूर्णता को दर्शाता है।
- मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥
- मोर मुकुट – “मोर (मौर) की पंख से सजा हुआ मुकुट”, श्रीकृष्ण के सिर पर पहने जाने वाले मुकुट का संदर्भ है, जिसमें मोर की पंख लगे होते हैं।
- वैजन्तीमाला – वह माला जो श्रीकृष्ण के गले में होती है और वैजयंती फूलों से बनी होती है।
- कुंडल श्रवण, पीत पट आछे।
- कुंडल श्रवण – “कानों में पहने जाने वाले कुंडल (कान की बालियां)”.
- पीत पट आछे – “पीला रंग का वस्त्र अच्छा लग रहा है”, यहां ‘पीत’ का अर्थ है पीला और ‘पट’ का अर्थ है वस्त्र।
- कटि किंकिणी काछनी काछे॥
- कटि किंकिणी – “कमर पर पहनी जाने वाली घुंघरूदार बेल्ट या चूड़ी”.
- काछनी काछे – “विशेष प्रकार की आभूषण जो कटि या कमर पर पहना जाता है”, इसे अंग-रचना या वेस्ट भी कह सकते हैं।
- नील जलज सुन्दर तनु सोहे।
- नील जलज – “नीले कमल के समान”, जहाँ ‘जलज’ का अर्थ होता है पानी में उत्पन्न होने वाला, जैसे कि कमल।
- सुन्दर तनु सोहे – “सुंदर शरीर चमक रहा है या शोभा पा रहा है”.
- छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
- छबि लखि – “उसकी छवि या रूप को देखकर”.
- सुर नर मुनिमन मोहे – “देवता, मनुष्य और ऋषियों के मन को मोहित कर देता है”, जहाँ ‘सुर’ देवताओं को, ‘नर’ मनुष्यों को और ‘मुनि’ ऋषियों को दर्शाता है।
- मस्तक तिलक, अलक घुँघराले।
- मस्तक तिलक – “माथे पर लगाया गया तिलक”.
- अलक घुँघराले – “आँखों के पास घुंघराले बाल (लोकप्रिय रूप में, यह श्रीकृष्ण के आँखों के पास की सुंदर और घुंघराले बालों का संदर्भ हो सकता है)”.
- आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
- “आओ श्रीकृष्ण, जो बाँसुरी (फ्लूट) वाले हैं।”
- करि पय पान, पूतनहि तार्यो।
- करि पय पान – “दूध पीते हुए (यहाँ पर, श्रीकृष्ण द्वारा पूतना के दूध को पीने का संदर्भ है)”.
- पूतनहि तार्यो – “पूतना को मुक्ति दी (या उसे पार किया)।”
- अका बका कागासुर मार्यो॥
- “अका बका और कागासुर को मार डाला।” यहाँ पर अका, बका और कागासुर राक्षसों के नाम हैं, जिन्हें बालकृष्ण ने मारा था।
- मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला।
- “जब मधुवन में आग की ज्वाला जल रही थी।”
- भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥
- “तब नंदलाल (अर्थात श्रीकृष्ण) को देखते ही वह आग ठंडी प्रतीत होती थी।”
- सुरपति जब ब्रज चढ़्यो रिसाई।
- “जब स्वर्ग के सम्राट (इंद्र) ने ब्रज पर क्रोध किया।”
- मूसर धार वारि वर्षाई॥
- “तब (कृष्ण ने) गोवर्धन पर्वत को मूसर (छड़ी) की तरह उठाया और बारिश की अधिकता से ब्रजवासियों की रक्षा की।”
इन पंक्तियों में, श्रीकृष्ण के अद्भुत और चमत्कारिक कार्यों का वर्णन है, जैसे कि उन्होंने मधुवन में जल रही आग को शीतल कर दिया और गोवर्धन पर्वत को उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की।
- दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥
- “दुष्ट कंस ने बहुत अधिक उत्तेजना पैदा की।”
- कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
- “जब उसने करोड़ कमल के फूल मांगे।”
- नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें।
- “प्रभु! जब आपने कालिया नाग को पकड़ लिया।”
- चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥
- “अपने चरणों का चिह्न देकर उसे निर्भय बना दिया।”
इन पंक्तियों में भगवान श्रीकृष्ण के कुछ महत्वपूर्ण कार्यों का वर्णन है, जैसे की उनका संघर्ष कंस के साथ और उनका मुखामुखी सामना कालिया नाग के साथ, जिसे वह अपने चरण-चिह्न से निर्भय बना देते हैं।
- करि गोपिन संग रास विलासा।
- “गोपियों के साथ रासलीला में विलास किया।”
- सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
- “सभी की इच्छाओं को पूरा किया।”
- केतिक महा असुर संहार्यो।
- “कई बड़े असुरों को संहार किया।”
- कंसहि केस पकड़ि दै मार्यो॥
- “कंस को उसके बाल पकड़कर मार डाला।”
इन पंक्तियों में भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का चित्रण है। उनकी रासलीला के विलास, गोपियों की इच्छाओं को पूरा करना, महाअसुरों का संहार और अंत में उनका संघर्ष कंस के साथ, जिसमें वह कंस को मारते हैं।
- मातपिता की बन्दि छुड़ाई ।
- “माँ-पिता को बंधन से मुक्त किया।”
- उग्रसेन कहँ राज दिलाई॥
- “उग्रसेन को फिर से राजा बनाया।”
- महि से मृतक छहों सुत लायो।
- “मृतक स्थिति में छह बेटों को जीवंत किया।”
- मातु देवकी शोक मिटायो॥
- “माँ देवकी का शोक दूर किया।”
ये पंक्तियाँ भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न करिश्माई कार्यों का चित्रण करती हैं। इनमें वह अपने माता-पिता को जेल से छुड़ाने, उग्रसेन को फिर से राजा बनाने, और अपने माता देवकी के छह बेटों को मृत्यु से पुनः जीवंत करने की बातें बताई गई हैं।
- भौमासुर मुर दैत्य संहारी।
- “भौमासुर नामक दानव का संहार किया।”
- लाये षट दश सहसकुमारी॥
- “छह हजार राजकुमारियाँ उधार लाई।”
- दै भीमहिं तृण चीर सहारा।
- “भीम को घास का ताना (तृण) के समान उसकी चादर दी।”
- जरासिंधु राक्षस कहँ मारा॥
- “जरासंध, जिसे राक्षस कहा जाता था, उसे मार डाला।”
इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण की विभिन्न कीर्तियों का वर्णन है। यहाँ पर उनके द्वारा दानवों और अन्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की बातें बताई गई हैं।
- असुर बकासुर आदिक मार्यो।
- “असुर बकासुर आदि को मार डाला।”
- भक्तन के तब कष्ट निवार्यो॥
- “तब अपने भक्तों के कष्ट दूर किए।”
- दीन सुदामा के दुःख टार्यो।
- “दरिद्र सुदामा के दुःख को दूर किया।”
- तंदुल तीन मूंठ मुख डार्यो॥
- “तीन मुट्ठी भर चावल को मुँह में डाला।”
इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण की महानता, उनकी भक्त वत्सलता और उनके अद्भुत कार्यों का वर्णन है। यहाँ सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता की कथा का संकेत भी है, जिसमें श्रीकृष्ण ने सुदामा के लिए अपार प्रेम और सहानुभूति दिखाई।
- प्रेम के साग विदुर घर माँगे।
- “प्रेम से विदुर के घर साग (एक प्रकार की सब्जी) माँगा।”
- दर्योधन के मेवा त्यागे॥
- “दुर्योधन के फल मेवा (ड्राई फ्रूट्स) को त्याग दिया।”
- लखी प्रेम की महिमा भारी।
- “प्रेम की महानता को देखा।”
- ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
- “ऐसे हैं श्याम (श्रीकृष्ण) जो दीनानाथ (दरिद्रों और असहाय लोगों) के हित में कार्य करते हैं।”
इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण के विदुर जी के घर जाकर साग का प्रेमपूर्वक उपयोग करने और दुर्योधन के द्वारा दिए गए मेवे को त्यागने की घटना को दर्शाया गया है। इससे प्रेम और साधुता की महत्वपूर्णता का प्रतीक बनता है।
- भारत के पारथ रथ हाँके।
- “महाभारत में अर्जुन (जिसे पार्थ भी कहा जाता है) के रथ को संचालित किया।”
- लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥
- “चक्र धारण किये बिना थकावट महसूस किए बिना।”
- निज गीता के ज्ञान सुनाए।
- “उसने अपने गीता का ज्ञान सुनाया।”
- भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥
- “भक्तों के हृदय पर अमृत की जैसी वर्षा की।”
यह पंक्तियाँ महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध के समय श्रीकृष्ण के अर्जुन के सारथी बनने और भगवद गीता के ज्ञान को प्रस्तुत करने के संदर्भ में हैं। भगवद गीता का ज्ञान भक्तों के हृदय में अमृत जैसी अनुभूति पैदा करता है, जो उन्हें अध्यात्मिक सुख प्रदान करता है।
- मीरा थी ऐसी मतवाली।
- “मीरा बहुत अध्यात्मिक और भगवान में पूरी तरह समर्पित थी।”
- विष पी गई बजाकर ताली॥
- “उसने विष पी लिया और उसे पीते समय तालियाँ बजाई।”
- राना भेजा साँप पिटारी।
- “राना ने एक संडूक में साँप भेजा।”
- शालीग्राम बने बनवारी॥
- “लेकिन जब संडूक खोली गई, तो वह साँप शालीग्राम (भगवान विष्णु का प्रतीक) में बदल गया।”
यह पंक्तियाँ मीराबाई के अद्वितीय भक्ति और उसके प्रति उसके ससुराल वालों द्वारा की गई अनेक प्रताड़नाओं का वर्णन करती हैं। इसमें बताया गया है कि कैसे उसके भक्ति के प्रति समर्पण के कारण उसे भेजे गए जहर और साँप से भी कोई चोट नहीं पहुंची।
- निज माया तुम विधिहिं दिखायो।
- “तुमने अपनी माया (अद्वितीय शक्ति और सामार्थ्य) को दर्शाया।”
- उर ते संशय सकल मिटायो॥
- “इससे सभी प्रकार के संशय (संदेह) मिट गए।”
- तब शत निन्दा करि तत्काला।
- “फिर शिशुपाल ने तुम्हें सौ बार निंदा की।”
- जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
- “और तुरंत ही शिशुपाल जीवन मुक्त (मोक्ष प्राप्त) हो गया।”
इस पंक्तियों में भगवान श्रीकृष्ण की महिमा और उनकी अद्वितीय शक्ति को दर्शाया गया है। इसमें शिशुपाल की कथा का संकेत किया गया है, जिसमें उसने श्रीकृष्ण की निंदा की, लेकिन अंत में वही निंदा उसे मोक्ष प्राप्त कराई।
- जबहिं द्रौपदी टेर लगाई।
- “जब द्रौपदी ने आपकी शरण में पुकार की।”
- दीनानाथ लाज अब जाई॥
- “हे दीनों के नाथ (दुखियों के प्रभु), अब उसकी लाज (इज्जत) जा रही है।”
- तुरतहि वसन बने नंदलाला।
- “तुरंत ही, हे नंदलाला (श्रीकृष्ण), वहाँ वस्त्र बन गए।”
- बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥
- “चीर (वस्त्र) बढ़ते गए और शत्रुओं के मुँह काले हो गए (उनकी नीचता सामने आ गई)।”
इस पंक्तियों में महाभारत के विख्यात प्रसंग ‘द्रौपदी का चीरहरण’ की घटना को संकेत किया गया है, जब द्रौपदी अपमानित हो रही थी और उसने भगवान श्रीकृष्ण की शरण में पुकारा। इस पर भगवान ने उसकी रक्षा की और अनंत वस्त्र प्रदान किए। इससे शत्रुओं की नीचता सामने आ गई और द्रौपदी की लाज बचाई गई।
- अस अनाथ के नाथ कन्हइया।
- “ऐसे ही, जो अनाथ (निराश्रित) हैं, उनके नाथ (संरक्षक) हो तुम, कन्हैया।”
- डूबत भंवर बचावइ नइया॥
- “जैसे एक डूबती हुई नाव को भंवर (वृत्ताकार जलधारा) से बचाते हो।”
- सुन्दरदास आ उर धारी।
- “सुन्दरदास आपको अपने हृदय में धारण करता है।”
- दया दृष्टि कीजै बनवारी॥
- “हे बनवारी (कृष्ण), कृपालु दृष्टि से देखो।”
इस भजन में सुन्दरदास भगवान श्रीकृष्ण से उनकी कृपा की प्रार्थना कर रहे हैं और उन्हें अनाथों का संरक्षक बता रहे हैं। वह यह भी कह रहे हैं कि जैसे भगवान एक डूबती हुई नाव को भंवर से बचा सकते हैं, वैसे ही वह उन्हें भी जीवन की कठिनाइयों से बचा सकते हैं।
- नाथ सकल मम कुमति निवारो।
- “हे प्रभु, मेरी सभी दुर्भावनाओं और कुतर्कों को दूर करो।”
- क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
- “हमारे सभी अपराधों को तुरंत माफ करो।”
- खोलो पट अब दर्शन दीजै।
- “अब अपने दरशन के लिए पर्दा खोलो।”
- बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥
- “बोलो ‘जय श्री कृष्ण कन्हैया’।”
इस भजन में भक्त भगवान श्रीकृष्ण से अपनी दुराचारों और दुर्भावनाओं के निवारण की, और अपने पापों की क्षमा की प्रार्थना कर रहा है। उस भक्त ने प्रार्थना की है कि भगवान अपना दर्शन प्रदान करें और सभी भक्तों को “जय श्री कृष्ण” के जयकार में सम्मिलित करें।
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि। अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥
“जो भक्त यह कृष्ण चालीसा पढ़ता है और इसे अपने हृदय में धारण करता है, वह अष्ट सिद्धियों और नवनिधियों का फल प्राप्त करता है और चार प्रमुख पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष) को भी प्राप्त करता है।”